Saturday, 13 January 2018

बज्जिका लहर: लागे जाड़ न माघ - पूस में, लागे जब बहे बतास / कवि- मृदुल

   लागे जाड़ न माघ - पूस में, लागे जब बहे बतास

मृदुल 

लागे जाड़ न माघ - पूस में, लागे जब बहे बतास
इहे समइया जिनगी सिमटे घुरा बोरसी के पास 

          सरदी बढ़े एत्ता जे से
          नाक से टपटप चूये नेटा
          कुत्ता - गीदड़ हबके - झबके
          हाथ पकड़े पड़े सोंटा
धीओ - पुता तंग करइअ, लेबे न देइय तनको सांस

          तमाकुल के खेत न कट्टल
          सब्भे कुछ है ओझराएल
          पोसिया माल के दूध न उतरल
          कइसे जाय फरियाएल
दुब्भी -मोथा, ठरकल - ठिहुकल, खाली मिले फुलहर कास

          फुला रहल हन गहूम - खेसारी
          है झबरल रहरी, सरसो
          बचा लीअहू भगवान हे एकरा
          देख न कोई तरसो
एकरे पर महाजन सब्भे, इहे पर घर भर के आस

          एतने में दऽ संस बऽरक्कत
          धीआ - पुता आगे बढ़े
          ऊब्बड़ - खाब्बड़, सूख्खल - भींगल
           उ सब सीढ़ी पर पहिले चढ़े
बहे केतनो अन्हर - बउखी, न टूटे जिनगी के रास.
......
कवि - मृदुल 
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