लागे जाड़ न माघ - पूस में, लागे जब बहे बतास
लागे जाड़ न माघ - पूस में, लागे जब बहे बतास
इहे समइया जिनगी सिमटे घुरा बोरसी के पास
सरदी बढ़े एत्ता
जे से
नाक से टपटप
चूये नेटा
कुत्ता - गीदड़
हबके - झबके
हाथ पकड़े पड़े
सोंटा
धीओ - पुता तंग करइअ, लेबे न देइय तनको सांस
तमाकुल के
खेत न कट्टल
सब्भे कुछ
है ओझराएल
पोसिया माल
के दूध न उतरल
कइसे जाय फरियाएल
दुब्भी -मोथा, ठरकल - ठिहुकल, खाली मिले फुलहर कास
फुला रहल हन
गहूम - खेसारी
है झबरल रहरी, सरसो
बचा लीअहू
भगवान हे एकरा
देख न कोई
तरसो
एकरे पर महाजन सब्भे, इहे पर घर भर के आस
एतने में दऽ
संस बऽरक्कत
धीआ - पुता
आगे बढ़े
ऊब्बड़ - खाब्बड़, सूख्खल - भींगल
उ सब सीढ़ी
पर पहिले चढ़े
बहे केतनो अन्हर - बउखी, न टूटे जिनगी के रास.
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कवि - मृदुल
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